पुस्तक समीक्षा: "गोरा" -भारतीयता की खोज का अपूर्व आख्यान

ठाकुर रविन्द्र नाथ टैगोर द्वारा लिखित उपन्यास "गोरा" की गहराई को समझने के बाद उसे महाकाव्य की संज्ञा देना अतिसंयोक्ति न होगा।


यह काव्य भारत के उस काल का आईना है जब भारत पराधीनता के साथ-साथ धार्मिक युद्ध में भी लिप्त था। अंग्रेजी हुकूमत ने ईसाई मिशनरियों को धर्मपरिवर्तन के लिए खुली छूट दी थी। वहीं हिन्दू समाज में जातिगत भेदभाव, रूढ़ियों, छुआछूत से आहत लोगों ने तेजी के साथ ईसाइयत को स्वीकार करना शुरू किया। यह वही कालखंड था जब राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज पूरी तरह ईसाइयत की ओर आकर्षित हो गया था।


गोरा पुस्तक में गोरा, विनय, सुचरिता, परेश बाबू और हारान बाबू प्रमुख पात्र हैं। गोरा एक हिन्दू और प्रबल राष्ट्रवादी विचारक है। जिसके जीवन का एक मात्र उद्देय हिन्दू समाज व भारत मां की सेवा करना है। वहीं हारान ब्रह्म समाज का विचारक है जो हिंदू धर्म का प्रबल विरोधी है। हारान अंग्रेजी हुकूमत व ईसाइयत को देश के लिए अत्यंत आवश्यक समझता है।
परेश बाबू भी ब्रह्म समाज के उपासक हैं जिनकी बेटियों से गहरी दोस्ती के कारण गोरा के मित्र विनय पर तमाम सामाजिक लांछन लगते हैं। इस काव्य में इन्हीं किरदारों के इर्द गिर्द सामाजिक परम्पराओं व रूढ़ियों पर तमाम बड़े संवाद हुए हैं।
 सामाजिक आडम्बर, जातिवाद, धर्मांधता, अंग्रेजों का अन्याय, समाज का पतन, नारियों  की स्थिति, ईसाइयत आदि सभी तत्कालीन विषयों को समाहित करते हुए एक प्रेम कथा भी साथ-साथ चलती है। इस काव्य में समाज, धर्म व राष्ट्र से सम्बंधित कई गूढ़ विषयों पर वृहद संवाद है।
काव्य का हिंदी अनुवाद बहुत अच्छे और उच्च स्तर का है जो कई नए शब्द सीखने को मजबूर कर देगा।
सबसे खास बात यह है कि इस काव्य को जितनी गहराई से, विचार करते हुए पढ़ा जाएगा वह आपको कई विषयों पर रुक कर सोचने को मजबूर कर देगा। इसे सिर्फ एक कहानी की तरह पढ़ना लेखक और उपन्यास के साथ अन्याय होगा।

~अंकित मिश्र

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